Saturday, November 8, 2008

भक्ति आन्दोलन का सामाजिक महत्त्व

भक्ति काल का समय १४०० से १७०० ई० माना गया है। इस कालखंड में अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अवसान के साथ ही देश भाषाओं में 'भक्ति' संज्ञक लोकवादी विशिष्ट भावधारा के व्यापक बहुरूपी और उत्कृष्ट साहित्य की प्रधानता दिखलाई पड़ती है। इस काल में अनेक भावधाराओं में भी साहित्य किखा गया लेकिन भक्ति की वेगपूर्ण भावधारा के आगे उसकी इयत्ता इतनी गौण है की उसपर भी भक्ति का रंग चढ़ता दिखाई पङता है। यह भावधारा राजाश्रय और धर्मं की परम्परागत संकीर्ण परिधियों के बाहर जाति-वर्ण-धर्म-सम्प्रदाय-भाषा-क्षेत्र तमाम तरह के भेदों से ऊपर उठकर अखिल भारतीय महान लोकजागरण का ऐसा स्वरुप धारण करती है जिसमे राजमहल से लेकर साधु-संतों की झोपडियों तक और शास्त्राभ्यासी पंडितों से लेकर अनपढ़-निरक्षर किसानों, कारीगरों तक आतंरिक और बाह्य तथा निजी और सामूहिक व्यापित दिखाई पड़ती है। यह भावधारा कैसी है और इतिहास के इस कालखंड में अचानक कहाँ से उमड़ पडी? क्या यह सचमुच 'अचानक' उमड़ पडी थी? जॉर्ज ग्रियर्सन ने लिखा है-"बिजली की चमक के समान अचानक इस समस्त पुराने धार्मिक मतों के अन्धकार के ऊपर एक नयी बात दिखाई दी। कोई हिन्दू यह नहीं जानता कि यह बात कहाँ से आई और कोई भी इसके प्रादुर्भाव का कारण निश्चय नहीं कर सकता...।" वे यह भी कहते हैं कि "हम अपने को ऐसे धार्मिक आन्दोलन के सामने पाते है जो उन सब आंदोलनों से कहीं व्यापक और विशाल है, जिन्हें भारत वर्ष ने कभी भी देखा है। यहाँ तक कि वह बौद्ध धर्म के आन्दोलन से भी अधिक व्यापक और विशाल है, क्योंकि उसका प्रभाव आज भी वर्त्तमान है। इस युग में धर्म ज्ञान का नहीं, बल्कि भावावेश का विषय हो गया था। यहाँ से हम साधना और प्रेमोल्लास के देश में आते है और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार करते हैं जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति की नहीं है, बल्कि जिनकी समता मध्य युग के यूरोपियन भक्त बर्नार्ड ऑफ़ क्लेयारवानाए और सेंट थेरिसा से है।" ग्रियर्सन को भारतीय भक्तों एवं भक्ति का स्त्रोत भी मध्ययुगीन यूरोप के ईसाई संतों में ही दिखाई पङता है। ई० सन् की दूसरी-तीसरी शदी में वेस्तोरीयन ईसाई मद्रास के कुछ हिस्सों में आ बसे और आगे रामानुजाचार्य को इन्ही ईसाई भक्तों से भावावेश और प्रेमोल्लास के धर्म की सीख मिली। आगे चर्चा करने से पूर्व यह जानना जरूरी है कि भक्ति क्या है?


भक्ति:-
'श्रीमद् भगवद् गीता' में भक्ति के आलंबन में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा है-"मध्यार्पित मनोबुद्धिर्यो मद् भक्तः स में प्रियः" यानी जिसने अपने मन और बुद्धि को मुझे समर्पित कर दिया है वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। मध्वाचार्य ने कहा है-"भगवान में महात्मयज्ञान पूर्वक सुदृढ़ और सतत स्नेह ही भक्ति है।" वल्लभाचार्य ने कहा है-"ज्ञान और कर्म के प्रभाव से रहित हो किसी प्रकार की फल की इच्छा किये बिना निरंतर कृष्ण का (भगवान का) प्रेमपूर्वक ध्यान करना ही भक्ति है।" आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्रद्धा और प्रेम के योग को भक्ति बताया है और हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार "भक्ति भगवान के प्रति अनन्यगामी एकांत प्रेम का ही नाम है।"

भक्ति का उद्भव:-
भारत में भक्ति के उद्भव और स्त्रोत को लेकर विद्वानों के बीच एक मत नहीं है। ऊपर ग्रियर्सन के मत का उल्लेख किया गया है। इसी से मिलते-जुलते मत बेबर, कीथ, विल्सन इत्यादि विदेशी विद्वानों के भी है जो भक्ति को ईसाई प्रभाव मानते है। आज इस मत को प्रायः अमान्य सिद्ध किया जा चुका है। श्री बाल गंगाधर तिलक, श्री कृष्णास्वामी अयंगार, डा० एच० राय चौधरी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने तथ्यात्मक साक्ष्यों और प्रबल तर्कों के सहारे ऐसी भ्रांत धारणाओं का खंडन करते हुए भक्ति का उद्गम प्राचीन भारतीय स्त्रोतों में सिद्ध किया है। कुछ लोगों ने तात्कालिक रूप से परिस्थितिगत प्रेरणा के रूप में मुस्लिम आक्रमण और राज्यस्थापना से भक्ति आन्दोलन को जोड़ा है जिसमे रामचंद्र शुक्ल प्रमुख हैं। इनके अनुसार "देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके मन्दिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियाँ तोडी जाती थी और पूज्य पुरूषों का अपमान होता था और वे कुछ ना कह सकते थे। ऐसे स्थिति में अपने वीरता के गीत ना तो वे गा सकते थे और ना बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर-दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के नीचे हिंदू जनता पर उदासी छाई रही। अपनी पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करूणा की ओर ना ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?" शुक्ल जी के मान्यता का प्रतिवाद करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है-"जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगो ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की भावधारा को उमडना ही था तो पहले उसे सिंध में और फिर उसे उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई दक्षिण में।" यह सही है कि भक्ति मध्यकाल में दक्षिण भारत में प्रकट हुई और वहीं के आलवार भक्तों तथा आगे श्रीनाथ मुनि, रामानुज, रामानंद, मध्व आदि आचार्यों ने उसे नए रूप में शास्त्रीय संबल प्रदानकर उत्तर भारत में प्रचारित किया। आचार्य शुक्ल इस तथ्य से अनजान नहीं थे। उन्होंने लिखा है-"भक्ति का जो स्त्रोत दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदयक्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।" शुक्ल जी की स्थापना का खंडन करते हुए द्विवेदी जी का ये कथन सही है कि- नैतिक-संस्कृतिक जिजीविषा और आध्यात्मिक सम्पन्नता का उद् घोष करने वाला भक्ति साहित्य 'हतदर्प पराजित जाति' की संपत्ति नहीं है।

भक्ति की धाराएँ: विभिन्न संप्रदाय
भक्ति की दो धाराएँ प्रवाहित हुई-निर्गुण धारा और सगुण धारा। निर्गुण और सगुण मतवाद का अन्तर अवतार एवं लीला की दो अवधारणाओं को लेकर है। निर्गुण मत के इष्ट भी कृपालु, सहृदय, दयावान, करुणाकर हैं, वे भी मानवीय भावनाओं से युक्त हैं, किंतु वे न अवतार ग्रहण करते हैं न लीला। वे निराकार हैं। सगुण मत के इष्ट अवतार लेते हैं, दुष्टों का दमन करते हैं, साधुओं की रक्षा करते हैं और अपनी लीला से भक्तों के चित्त का रंजन करते हैं। अतः सगुण मतवाद में विष्णु के २४ अवतारों में से अनेक की उपासना होती है जिसमे सर्वाधिक लोकप्रिय और लोक-पूजित अवतार राम एवं कृष्ण हैं।

निर्गुण एवं सगुण, दोनों प्रकार की भक्ति का मुख्य लक्षण है-भगवद् विषयक रति एवं अनन्यता।

भक्ति के अनेक संप्रदाय हैं। उनमें से चार प्रमुख संप्रदाय हैं-श्री, ब्राह्म, रुद्र, सनकादि या निंबार्क।

१.श्रीसंप्रदाय- इस संप्रदाय के आचार्य रामानुजाचार्य हैं। कहा जाता है कि लक्ष्मी ने इन्हें जिस मत का उपदेश दिया उसी के आधार पर इन्होने अपने मत का परवर्तन किया। इसीलिए इनके संप्रदाय को श्रीसंप्रदाय कहते हैं।

२.ब्राह्म संप्रदाय- इस संप्रदाय के प्रवर्तक मध्वाचार्य थे।

३.रुद्र संप्रदाय- इसके प्रवर्तक विष्णुस्वामी थे। वस्तुतः यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुष्टि संप्रदाय के रूप में हिन्दी साहित्य में जीवित है। वल्लभाचार्य ने कृष्ण की उपासना पर बल दिया।

४.सनकादि संप्रदाय- इसके प्रवर्तक निम्बार्काचार्य हैं।

भक्ति आन्दोलन का सामाजिक महत्त्व:-
के० दामोदरन के अनुसार "भक्ति आन्दोलन का मूल आधार भगवान विष्णु अथवा उनके अवतारों, राम और कृष्ण की भक्ति थी। किंतु यह शुद्धतः एक धार्मिक आन्दोलन नहीं था। वैष्णव के सिद्धांत मूलतः उस समय व्याप्त सामाजिक-आर्थिक यथार्थ की आदर्शवादी अभिव्यक्ति थे। ...सामाजिक विषयवस्तु में वे जातिप्रथा के अधिपत्य और अन्यायों के विरुद्ध अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विद्रोह के द्योतक थे। ...व्यापारी और दस्तकार, सामंती अवशोषण का मुकाबला करने के लिए, इस आन्दोलन से प्रेरणा प्राप्त करते थे। यह सिद्धांत कि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य-फिर वे ऊँची जाति के हो या नीची जाति के-समान हैं, इस आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु बन गया, जिसने पुरोहित वर्ग और जाति प्रथा के आतंक के विरुद्ध संघर्ष करनेवाले आम जनता के व्यापक हिस्सों को अपने चारों ओर एकजुट किया।" भक्ति आन्दोलन उस समय आरंभ हुआ था जब हिंदू और मुसलमान पुरोहितों तथा उनके द्वारा समर्थित और समृद्ध किए गए निहित स्वार्थों के खिलाफ संघर्ष एक ऐतिहासिक आवश्यकता बन गया था। "वस्तुनिष्ठ दृष्टि से समस्त जनता की एकता पर जोर दिया जाना ऐतिहासिक आवश्यकता के अनुरूप था। समय की मांग थी कि जाति-पाँति और धर्मों के भेद-भाव पर आधारित तुच्छ सामाजिक विभाजनों का-जो घरेलु बाजार के विकास और उसके परिणाम स्वरुप आर्थिक संबंधों में होने वाले परिवर्तनों के कारण अब एकदम निरर्थक हो गए थे-अंत किया जाए। भक्ति आन्दोलन इतना व्यापक एवं मानवीय था कि इसमें हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी आए। सूफी यद्यपि इस्लाम मतानुयायी हैं, किंतु अपने दर्शन एवं साधना-पद्यति के कारण भक्ति आन्दोलन में गणनीय हैं। इस्लाम एकेश्वरवादी हैं। किंतु सूफी संतों ने 'अनलहक' अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ' की घोषणा की। यह बात अद्वैतवाद से मिलाती-जुलती है। सूफी साधना के अनुसार मनुष्य के चार विभाग हैं- १ नफ्स (इन्द्रिय), २ अक्ल (बुद्धि या माया), ३ कल्ब (हृदय), ४ रूह (आत्मा)। यह साधना नफ्स और अक्ल को दबाकर कल्ब की साधना से रूह की प्राप्ति पर बल देती है।

भक्ति आन्दोलन का साहित्य पर भी गहरा असर पड़ा। इस काल में भक्ति की दोनों धाराओं में साहित्य लिखा गया जिसे निर्गुण काव्य एवं सगुण काव्य कहते हैं। दोनों काव्यों की दो-दो उपधाराएं भी है। निर्गुण काव्य की उपधाराएं हैं-ज्ञानाश्रयी शाखा (प्रमुख कवि-कबीर, रैदास, गुरु नानक, दादूदयाल, सुन्दरदास, रज्जब) और प्रेमाश्रयी शाखा या सूफी काव्य (प्रमुख कवि-कुतुबन, मालिक मुहम्मद जायसी, मंझन) और सगुण काव्य की उपधाराएं हैं- राम-भक्ति शाखा (प्रमुख कवि-तुलसीदास, नाभादास) और कृष्ण-भक्ति शाखा (प्रमुख कवि-सूरदास, नंददास, कृष्णदास, मीराबाई, रसखान)।

निष्कर्ष:-
उपरोक्त बातों से साफ जाहिर है कि भक्ति आन्दोलन ने पूरे सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था को हिला कर रख दिया। इस आन्दोलन में हर तबके के लोगों ने भाग लिया और व्यापारिक गतिविधियों ने इसे पूरे भारत में फैलने में मदद की। इस आन्दोलन ने समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया एवं लोगों को सामंतवादी व्यवस्था से लड़ने की हिम्मत प्रदान की। इसने एक साथ भारत में नवजागरण का काम किया।

2 comments:

सुभाष यादव said...

bahut hi achhi jankariyan aapne diya hai ....thanks

vivek vishal said...

sahi hai bhai...