Sunday, November 16, 2008

नाम-रूप का भेद

नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?

नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और

शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने

बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने

कहँ ‘ काका ' कवि , दयाराम जी मारें मच्छर

विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर

मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप

श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप

जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में -

ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में

कहँ ‘ काका ' ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे

पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे

देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट

सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ

मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे

धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे

कहँ ‘ काका ' कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे

बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे

पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल

बिना सूँ ड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल

मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी

बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी

कहँ ‘ काका ' कविराय , करें लाखों का सट्टा

नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा

चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध

श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध

रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते

इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते

कहँ ‘ काका ', बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं

थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं

बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल

सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल

रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा - दादी

निकले बेटा आशाराम निराशावादी

कहँ ‘ काका ' कवि , भीमसेन पिद्दी से दिखते

कविवर ‘ दिनकर ’ छायावदी कविता लिखते

तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान

लाला दानसहाय ने करी न कौ ड़ ी दान

करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई

वंशीधर ने जीवन - भर वंशी न बजाई

कहँ ‘ काका ' कवि , फूलचंद जी इतने भारी

दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी

खट्टे - खारी - खुरखुरे मृदुलाजी के बैन

मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन

चिलगोजा से नैन , शांता करतीं दंगा

नल पर नहातीं , गोदावरी , गोमती , गंगा

कहँ ‘ काका ' कवि , लज्जावती दहा ड़ रही हैं

दर्शन देवी लंबा घूँघट का ढ़ रही हैं

अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम

कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम

रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया

दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया

‘ काका ' कोई - कोई रिश्ता ब ड़ा निकम्मा

पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा

- काका हाथरसी

घूस माहात्म्य

कभी घूस खाई नहीं, किया न भ्रष्टाचार

ऐसे भोंदू जीव को बार-बार धिक्कार

बार-बार धिक्कार, व्यर्थ है वह व्यापारी

माल तोलते समय न जिसने डंडी मारी

कहँ 'काका', क्या नाम पायेगा ऐसा बंदा

जिसने किसी संस्था का, न पचाया चंदा

- काका हाथरसी

हँसना-रोना

जो रोया
सो आँसुओं के दलदल में
धँस गया,
और कहते हैं
जो हँस गया वो फँस गया।
अगर फँस गया
तो मुहावरा आगे बढ़ता है
कि जो हँस गया,
उसका घर बस गया।
मुहावरा फिर आगे बढ़ता है
जिसका घर बस गया,
वो फँस गया!
और जो फँस गया,
वो आँसुओं के दलदल में
धँस गया!!

-अशोक चक्रधर

कौन है ये जैनी?

बीवी की नज़र थी
बड़ी पैनी-
क्यों जी,
कौन है ये जैनी?

सहज उत्तर था मियाँ का-
जैनी, जैनी नाम है
एक कुतिया का।
तुम चाहती थीं न
एक डौगी हो घर में,
इसलिए दोस्तों से
पूछता रहता था अक्सर मैं।
पिछले दिनों
एक दोस्त ने
जैनी के बारे में बताया था।

पत्नी बोली-
अच्छा!
तो उस जैनी नाम की कुतिया का
आज दिन में
पाँच बार फ़ोन आया था।

-अशोक चक्रधर

जंगल गाथा

एक नन्हा मेमना
और उसकी माँ बकरी,
जा रहे थे जंगल में
राह थी संकरी।
अचानक सामने से आ गया एक शेर,
लेकिन अब तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता,
बकरी और मेमने की हालत खस्ता।
उधर शेर के कदम धरती नापें,
इधर ये दोनों थर-थर कापें।
अब तो शेर आ गया एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे
बच्चे को थामने।
छिटककर बोला बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा?
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया।
बोला-
हे बकरी - कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीर्घायु भव!
चिरायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर,
कि अब नहीं होगा कोई अंधेरा
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हँसते-हँसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!

इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खानेवाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आनेवाला है।

-अशोक चक्रधर

ससुर जी उवाच

डरते झिझकते
सहमते सकुचाते
हम अपने होने वाले
ससुर जी के पास आए,
बहुत कुछ कहना चाहते थे
पर कुछ
बोल ही नहीं पाए।

वे धीरज बँधाते हुए बोले-
बोलो!
अरे, मुँह तो खोलो।

हमने कहा-
जी. . . जी
जी ऐसा है
वे बोले-
कैसा है?

हमने कहा-
जी. . .जी ह़म
हम आपकी लड़की का
हाथ माँगने आए हैं।

वे बोले
अच्छा!
हाथ माँगने आए हैं!
मुझे उम्मीद नहीं थी
कि तू ऐसा कहेगा,
अरे मूरख!
माँगना ही था
तो पूरी लड़की माँगता
सिर्फ़ हाथ का क्या करेगा?

- अशोक चक्रधर

लोहे के मर्द

पुरुष वीर बलवान,
देश की शान,
हमारे नौजवान
घायल होकर आये हैं।

कहते हैं, ये पुष्प, दीप,
अक्षत क्यों लाये हो?

हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,
फूलों के हारों की, जय-जयकार की।

तड़प रही घायल स्वदेश की शान है।
सीमा पर संकट में हिन्दुस्तान है।

ले जाओ आरती, पुष्प, पल्लव हरे,
ले जाओ ये थाल मोदकों ले भरे।

तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो,
दे सकते हो तो गोली-बन्दूक दो।

- रामधारी सिंह दिनकर

Saturday, November 15, 2008

चाँद पर लहराया तिरंगा

भारत के पहले मानवरहित चंद्रयान-1 से मून इंपैक्ट प्रोव के चंद्रमा की धतरी पर उतर कर भारतीय राष्ट्रध्वज स्थापित करने के साथ ही चंद्रमा पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाला भारत चौथा देश बन गया है।

अमेरिका, पूर्ववर्ती सोवियत संघ तथा यूरोपीय संघ की कतार में भारत को खड़ा करते हुए 35 किलोग्राम के मून इंपैक्ट प्रोब ने चंद्रमा की धतरी पर आठ बजकर 31 मिनट पर कदम रखा। इससे 25 मिनट पूर्व प्रोव का उपकरण उपग्रह पर उतरा। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो इसे शानदार आपरेशन करार दिया है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन और बाल दिवस के मौके पर चंद्रयान ने भारतीय राष्ट्रध्वज के प्रारूप को चंद्रमा की धरती पर स्थापित किया।

अभियान की सफलता से अभिभूत इसरो के अध्यक्ष जी माधवन नायर ने इस ऐतिहासिक मौके पर कहा कि हमने चंद्रमा की सतह पर तिरंगे को सफलतापूर्वक पहुंचा दिया है। हमने वैज्ञानिक उपकरण मून इंपैक्ट प्रोब [एमआईपी] को चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र में शाकेल्टन गढ्डे के पास ठीक उसी जगह के लिए छोड़ दिया है जहां इसे पहुंचाना था। यह क्षेत्र चारों ओर से पहाड से घिरा हुआ है। अब एमआईपी पर लगे कैमरे तस्वीरें ले रहे हैं। अंतरिक्ष यान चंद्रयान-1 इस समय चांद के पीछे है। दो घंटे बाद यह पृथ्वी क ी तरफ आ जाएगा और एमआईपी से खींची गई तस्वीरें यह पृथ्वी पर भेजने लगेगा।

चंद्रयान की सफलता से अभिभूत डा. कलाम ने कहा यह मेरे लिए अद्भुत अनुभव है। यह युवा पीढ़ी के लिए बड़ा प्रेरणा स्रोत है। अब वे चांद को छूने का सपना देख सकते हैं। डा कलाम ने इसरो के सभी वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तकनीशियनों को खास तौर पर बधाई दी। इस अवसर पर डा. नायर ने बताया कि चंद्रमा पर भेजे जाने वाले दूसरे भारतीय अभियान चंद्रयान-2 का नाम आदित्य. होगा।

नई दिल्ली में राष्ट्रपति पतिभा पाटिल ने चंद्रमा पर खोज करने वाले वैज्ञानिक उपकरण को सफलतापूर्वक चंद्रमा की सतह पर पहुंचाने के लिए इसरो के बधाई दी है। राष्ट्रपति ने इसरो के वैज्ञानिकों को भेजे संदेश में कहा है कि इससे भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम में नए युग की शुरुआत हुई है।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चंद्रमा की सतह पर एमआईपी के जरिये तिरंगा पहुंचने को देश के लिए ऐतिहासिक क्षण बताते हुए इससे जुडे़ सभी वैज्ञानिकों को बधाई दी है। गांधी ने अपने बधाई संदेश में कहा कि इस शानदार उपलब्धि के लिए हमें अपने वैज्ञानिकों पर गर्व है।

Saturday, November 8, 2008

भक्ति आन्दोलन का सामाजिक महत्त्व

भक्ति काल का समय १४०० से १७०० ई० माना गया है। इस कालखंड में अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अवसान के साथ ही देश भाषाओं में 'भक्ति' संज्ञक लोकवादी विशिष्ट भावधारा के व्यापक बहुरूपी और उत्कृष्ट साहित्य की प्रधानता दिखलाई पड़ती है। इस काल में अनेक भावधाराओं में भी साहित्य किखा गया लेकिन भक्ति की वेगपूर्ण भावधारा के आगे उसकी इयत्ता इतनी गौण है की उसपर भी भक्ति का रंग चढ़ता दिखाई पङता है। यह भावधारा राजाश्रय और धर्मं की परम्परागत संकीर्ण परिधियों के बाहर जाति-वर्ण-धर्म-सम्प्रदाय-भाषा-क्षेत्र तमाम तरह के भेदों से ऊपर उठकर अखिल भारतीय महान लोकजागरण का ऐसा स्वरुप धारण करती है जिसमे राजमहल से लेकर साधु-संतों की झोपडियों तक और शास्त्राभ्यासी पंडितों से लेकर अनपढ़-निरक्षर किसानों, कारीगरों तक आतंरिक और बाह्य तथा निजी और सामूहिक व्यापित दिखाई पड़ती है। यह भावधारा कैसी है और इतिहास के इस कालखंड में अचानक कहाँ से उमड़ पडी? क्या यह सचमुच 'अचानक' उमड़ पडी थी? जॉर्ज ग्रियर्सन ने लिखा है-"बिजली की चमक के समान अचानक इस समस्त पुराने धार्मिक मतों के अन्धकार के ऊपर एक नयी बात दिखाई दी। कोई हिन्दू यह नहीं जानता कि यह बात कहाँ से आई और कोई भी इसके प्रादुर्भाव का कारण निश्चय नहीं कर सकता...।" वे यह भी कहते हैं कि "हम अपने को ऐसे धार्मिक आन्दोलन के सामने पाते है जो उन सब आंदोलनों से कहीं व्यापक और विशाल है, जिन्हें भारत वर्ष ने कभी भी देखा है। यहाँ तक कि वह बौद्ध धर्म के आन्दोलन से भी अधिक व्यापक और विशाल है, क्योंकि उसका प्रभाव आज भी वर्त्तमान है। इस युग में धर्म ज्ञान का नहीं, बल्कि भावावेश का विषय हो गया था। यहाँ से हम साधना और प्रेमोल्लास के देश में आते है और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार करते हैं जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति की नहीं है, बल्कि जिनकी समता मध्य युग के यूरोपियन भक्त बर्नार्ड ऑफ़ क्लेयारवानाए और सेंट थेरिसा से है।" ग्रियर्सन को भारतीय भक्तों एवं भक्ति का स्त्रोत भी मध्ययुगीन यूरोप के ईसाई संतों में ही दिखाई पङता है। ई० सन् की दूसरी-तीसरी शदी में वेस्तोरीयन ईसाई मद्रास के कुछ हिस्सों में आ बसे और आगे रामानुजाचार्य को इन्ही ईसाई भक्तों से भावावेश और प्रेमोल्लास के धर्म की सीख मिली। आगे चर्चा करने से पूर्व यह जानना जरूरी है कि भक्ति क्या है?


भक्ति:-
'श्रीमद् भगवद् गीता' में भक्ति के आलंबन में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा है-"मध्यार्पित मनोबुद्धिर्यो मद् भक्तः स में प्रियः" यानी जिसने अपने मन और बुद्धि को मुझे समर्पित कर दिया है वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। मध्वाचार्य ने कहा है-"भगवान में महात्मयज्ञान पूर्वक सुदृढ़ और सतत स्नेह ही भक्ति है।" वल्लभाचार्य ने कहा है-"ज्ञान और कर्म के प्रभाव से रहित हो किसी प्रकार की फल की इच्छा किये बिना निरंतर कृष्ण का (भगवान का) प्रेमपूर्वक ध्यान करना ही भक्ति है।" आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने श्रद्धा और प्रेम के योग को भक्ति बताया है और हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार "भक्ति भगवान के प्रति अनन्यगामी एकांत प्रेम का ही नाम है।"

भक्ति का उद्भव:-
भारत में भक्ति के उद्भव और स्त्रोत को लेकर विद्वानों के बीच एक मत नहीं है। ऊपर ग्रियर्सन के मत का उल्लेख किया गया है। इसी से मिलते-जुलते मत बेबर, कीथ, विल्सन इत्यादि विदेशी विद्वानों के भी है जो भक्ति को ईसाई प्रभाव मानते है। आज इस मत को प्रायः अमान्य सिद्ध किया जा चुका है। श्री बाल गंगाधर तिलक, श्री कृष्णास्वामी अयंगार, डा० एच० राय चौधरी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों ने तथ्यात्मक साक्ष्यों और प्रबल तर्कों के सहारे ऐसी भ्रांत धारणाओं का खंडन करते हुए भक्ति का उद्गम प्राचीन भारतीय स्त्रोतों में सिद्ध किया है। कुछ लोगों ने तात्कालिक रूप से परिस्थितिगत प्रेरणा के रूप में मुस्लिम आक्रमण और राज्यस्थापना से भक्ति आन्दोलन को जोड़ा है जिसमे रामचंद्र शुक्ल प्रमुख हैं। इनके अनुसार "देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके मन्दिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियाँ तोडी जाती थी और पूज्य पुरूषों का अपमान होता था और वे कुछ ना कह सकते थे। ऐसे स्थिति में अपने वीरता के गीत ना तो वे गा सकते थे और ना बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर-दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के नीचे हिंदू जनता पर उदासी छाई रही। अपनी पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करूणा की ओर ना ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?" शुक्ल जी के मान्यता का प्रतिवाद करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है-"जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगो ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की भावधारा को उमडना ही था तो पहले उसे सिंध में और फिर उसे उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई दक्षिण में।" यह सही है कि भक्ति मध्यकाल में दक्षिण भारत में प्रकट हुई और वहीं के आलवार भक्तों तथा आगे श्रीनाथ मुनि, रामानुज, रामानंद, मध्व आदि आचार्यों ने उसे नए रूप में शास्त्रीय संबल प्रदानकर उत्तर भारत में प्रचारित किया। आचार्य शुक्ल इस तथ्य से अनजान नहीं थे। उन्होंने लिखा है-"भक्ति का जो स्त्रोत दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदयक्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।" शुक्ल जी की स्थापना का खंडन करते हुए द्विवेदी जी का ये कथन सही है कि- नैतिक-संस्कृतिक जिजीविषा और आध्यात्मिक सम्पन्नता का उद् घोष करने वाला भक्ति साहित्य 'हतदर्प पराजित जाति' की संपत्ति नहीं है।

भक्ति की धाराएँ: विभिन्न संप्रदाय
भक्ति की दो धाराएँ प्रवाहित हुई-निर्गुण धारा और सगुण धारा। निर्गुण और सगुण मतवाद का अन्तर अवतार एवं लीला की दो अवधारणाओं को लेकर है। निर्गुण मत के इष्ट भी कृपालु, सहृदय, दयावान, करुणाकर हैं, वे भी मानवीय भावनाओं से युक्त हैं, किंतु वे न अवतार ग्रहण करते हैं न लीला। वे निराकार हैं। सगुण मत के इष्ट अवतार लेते हैं, दुष्टों का दमन करते हैं, साधुओं की रक्षा करते हैं और अपनी लीला से भक्तों के चित्त का रंजन करते हैं। अतः सगुण मतवाद में विष्णु के २४ अवतारों में से अनेक की उपासना होती है जिसमे सर्वाधिक लोकप्रिय और लोक-पूजित अवतार राम एवं कृष्ण हैं।

निर्गुण एवं सगुण, दोनों प्रकार की भक्ति का मुख्य लक्षण है-भगवद् विषयक रति एवं अनन्यता।

भक्ति के अनेक संप्रदाय हैं। उनमें से चार प्रमुख संप्रदाय हैं-श्री, ब्राह्म, रुद्र, सनकादि या निंबार्क।

१.श्रीसंप्रदाय- इस संप्रदाय के आचार्य रामानुजाचार्य हैं। कहा जाता है कि लक्ष्मी ने इन्हें जिस मत का उपदेश दिया उसी के आधार पर इन्होने अपने मत का परवर्तन किया। इसीलिए इनके संप्रदाय को श्रीसंप्रदाय कहते हैं।

२.ब्राह्म संप्रदाय- इस संप्रदाय के प्रवर्तक मध्वाचार्य थे।

३.रुद्र संप्रदाय- इसके प्रवर्तक विष्णुस्वामी थे। वस्तुतः यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के पुष्टि संप्रदाय के रूप में हिन्दी साहित्य में जीवित है। वल्लभाचार्य ने कृष्ण की उपासना पर बल दिया।

४.सनकादि संप्रदाय- इसके प्रवर्तक निम्बार्काचार्य हैं।

भक्ति आन्दोलन का सामाजिक महत्त्व:-
के० दामोदरन के अनुसार "भक्ति आन्दोलन का मूल आधार भगवान विष्णु अथवा उनके अवतारों, राम और कृष्ण की भक्ति थी। किंतु यह शुद्धतः एक धार्मिक आन्दोलन नहीं था। वैष्णव के सिद्धांत मूलतः उस समय व्याप्त सामाजिक-आर्थिक यथार्थ की आदर्शवादी अभिव्यक्ति थे। ...सामाजिक विषयवस्तु में वे जातिप्रथा के अधिपत्य और अन्यायों के विरुद्ध अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विद्रोह के द्योतक थे। ...व्यापारी और दस्तकार, सामंती अवशोषण का मुकाबला करने के लिए, इस आन्दोलन से प्रेरणा प्राप्त करते थे। यह सिद्धांत कि ईश्वर के सामने सभी मनुष्य-फिर वे ऊँची जाति के हो या नीची जाति के-समान हैं, इस आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु बन गया, जिसने पुरोहित वर्ग और जाति प्रथा के आतंक के विरुद्ध संघर्ष करनेवाले आम जनता के व्यापक हिस्सों को अपने चारों ओर एकजुट किया।" भक्ति आन्दोलन उस समय आरंभ हुआ था जब हिंदू और मुसलमान पुरोहितों तथा उनके द्वारा समर्थित और समृद्ध किए गए निहित स्वार्थों के खिलाफ संघर्ष एक ऐतिहासिक आवश्यकता बन गया था। "वस्तुनिष्ठ दृष्टि से समस्त जनता की एकता पर जोर दिया जाना ऐतिहासिक आवश्यकता के अनुरूप था। समय की मांग थी कि जाति-पाँति और धर्मों के भेद-भाव पर आधारित तुच्छ सामाजिक विभाजनों का-जो घरेलु बाजार के विकास और उसके परिणाम स्वरुप आर्थिक संबंधों में होने वाले परिवर्तनों के कारण अब एकदम निरर्थक हो गए थे-अंत किया जाए। भक्ति आन्दोलन इतना व्यापक एवं मानवीय था कि इसमें हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी आए। सूफी यद्यपि इस्लाम मतानुयायी हैं, किंतु अपने दर्शन एवं साधना-पद्यति के कारण भक्ति आन्दोलन में गणनीय हैं। इस्लाम एकेश्वरवादी हैं। किंतु सूफी संतों ने 'अनलहक' अर्थात् 'मैं ब्रह्म हूँ' की घोषणा की। यह बात अद्वैतवाद से मिलाती-जुलती है। सूफी साधना के अनुसार मनुष्य के चार विभाग हैं- १ नफ्स (इन्द्रिय), २ अक्ल (बुद्धि या माया), ३ कल्ब (हृदय), ४ रूह (आत्मा)। यह साधना नफ्स और अक्ल को दबाकर कल्ब की साधना से रूह की प्राप्ति पर बल देती है।

भक्ति आन्दोलन का साहित्य पर भी गहरा असर पड़ा। इस काल में भक्ति की दोनों धाराओं में साहित्य लिखा गया जिसे निर्गुण काव्य एवं सगुण काव्य कहते हैं। दोनों काव्यों की दो-दो उपधाराएं भी है। निर्गुण काव्य की उपधाराएं हैं-ज्ञानाश्रयी शाखा (प्रमुख कवि-कबीर, रैदास, गुरु नानक, दादूदयाल, सुन्दरदास, रज्जब) और प्रेमाश्रयी शाखा या सूफी काव्य (प्रमुख कवि-कुतुबन, मालिक मुहम्मद जायसी, मंझन) और सगुण काव्य की उपधाराएं हैं- राम-भक्ति शाखा (प्रमुख कवि-तुलसीदास, नाभादास) और कृष्ण-भक्ति शाखा (प्रमुख कवि-सूरदास, नंददास, कृष्णदास, मीराबाई, रसखान)।

निष्कर्ष:-
उपरोक्त बातों से साफ जाहिर है कि भक्ति आन्दोलन ने पूरे सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था को हिला कर रख दिया। इस आन्दोलन में हर तबके के लोगों ने भाग लिया और व्यापारिक गतिविधियों ने इसे पूरे भारत में फैलने में मदद की। इस आन्दोलन ने समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया एवं लोगों को सामंतवादी व्यवस्था से लड़ने की हिम्मत प्रदान की। इसने एक साथ भारत में नवजागरण का काम किया।

Thursday, November 6, 2008

कितनी जमीन?

दो बहने थी। बड़ी का कस्बे में एक सौदागर से विवाह हुआ था। छोटी देहात में किसान के घर ब्याह थी।

बड़ी का अपनी छोटी बहन के यहां आना हुआ। निबटकार दोनों जनी बैठीं तो बातों का सूत चल पड़ा। बड़ी अपने शहर के जीवन की तारीफ करने लगी, ‘‘देखो, कैसे आराम से हम रहते हैं। फैंसी कपड़े और ठाठ के सामान! स्वाद-स्वाद की खाने-पीने की चीजें, और फिर तमाशे-थियेटर, बाग-बगीचे!’’

छोटी बहन को बात लग गई। अपनी बारी पर उसने सौदागर की जिंदगी को हेय बताया और किसान का पक्ष लिया। कहा, ‘‘मैं तो अपनी जिंदगी का तुम्हारे साथ अदला-बदला कभी न करुं। हम सीधे-सादे और रुखे-से रहते हैं तो क्या, चिंता-फिकर से तो छूटे हैं। तुम लोग सजी-धजी रहती हो, तुम्हारे यहां आमदनी बहुत है, लेकिन एक रोज वह सब हवा भी हो सकता है, जीजी। कहावत हे ही—‘हानि-लाभ दोई जुड़वा भाई।’ अक्सर होता है कि आज तो अमीर है कल वही टुकड़े को मोहताज है। पर हमारे गांव के जीवन में यह जोखिम नहीं है। किसानी जिंदगी फूली और चिकनी नहीं दीखती तो क्या, उमर लंबी होती है और मेहनत से तन्दुरुस्ती भी बनी रहती है। हम मालदार न कहलायेगे: लेकिन हमारे पास खाने की कमी भी कभी न होगी।’’

बड़ी बहन ने ताने से कहा, ‘‘बस-बस, पेट तो बैल और कुत्ते का भी भरता है। पर वह भी कोई जिंदगी है? तुम्हें जीवन के आराम, अदब और आनन्द का क्या पता है? तुम्हारा मर्द जितनी चाहे मेहनत करे, जिस हालत में तुम जीते हो, उसी हालत में मरोगे। वहीं चारों तरफ गोबर, भुस, मिट्टी! और यही तुम्हारे बच्चों की किस्मत में बदा है।’’

छोटी ने कहा, ‘‘तो इसमें क्या हुआ! हां, हमारा काम चिकना-चुपड़ा नहीं हैं; लेकिन हमें किसी के आगे झुकने की भी जरुरत नहीं है। शहर में तुम हजार लालच से घिरी रहती हो। आज नहीं तो कल की क्या खबर है! कल तुम्हारे आदमी को पाप को लोभ—जुआ, शराब और दूसरी बुराइयां फंसा सकते हैं, तब घड़ी भर में सब बरबाद हो जायगा। क्या ऐसी बातें अक्सर होती नहीं हैं?’’

घर का मालिक दीना ओसारे में पड़ा औरतों की यह बात सुन रहा था। उसने सोचा कि बात तो खरी है। बचपन से मां धरती की सेवा में हम इतने लगे रहते हैं कि कोई व्यर्थ की बात हमारे मन में घर नहीं कर पाती है। बस, है तो मुश्किल एक। वह यह कि हमारे पास जमीन काफी नहीं है। जमीन खूब हो तो मुझे किसी का परवा न रहे, चाहे शैतान ही क्यों न हो!

वहीं कोने में शैतान दुबका बैठा था। उसने सबकुछ सुना। वह खुश था किसान की बीवी ने गांव की बड़ाई करके अपने आदमी को डींग पर चढ़ दिया। देखो न, कहता था कि जमीन खूब हो तो फिर चाहे शैतान भी आ जाय, तो परवा नहीं।

शैतान ने मन में कहा कि अच्छा हजरत, यही फैसला सही। मैं तुमको काफी जमीन दूंगा और देखना है कि उसी से तुम मेरे चंगुल में होते हो कि नहीं।

गांव के पास ही जमींदारी की मालकिन की कोठी थी। कोई तीन सौ एकड़ उनकी जमीन थी। उनके अपने आसामियों के साथ बड़े अच्छे सम्बन्ध रहते आये थे; लेकिन उन्होंने एक कारिन्दा रक्खा, जो पहले फौज में रहा था। उसने आकर लोगों पर जुरमाने ठोकरे शुरु कर दिये।

दीना का यह हाल था कि वह बहुतेरा करता, पर कभी तो उसका बैल जमींदारी की चरी में पहुंच जाता, कभी गाय बगिया में चरती पाई जाती। और नहीं तो उनकी रखाई हुई घास में बछिया-बछड़ा ही जा मुंह मारते। हर बार दीना को जुर्माना उठाना पड़ता। जुर्माना तो वह देता, पर बेमन से। वह कुनमुनाता और चिढ़ा हुआ-सा घर पहुंचता और अपनी सारी चिढ़ घर में उतारता। पूरे मौसम कारिंदे की वजह से उसे ऐसा त्रास भुगतना पड़ा।

अगले जाड़ों में गांव में खबर हुई कि मालकिन अपनी जमीन बेच रही हैं और मुंशी इकरामअली से सौदे की बातचीत चल रही है। किसाने सुनकर चौकत्रे हुए। उन्होंने सोचा कि मुंशीजी की जमीन होगी तो वह जमींदार के कारिन्दे से भी ज्यादा सख्ती करेंगे और जुर्माने चढ़ावेंगे और हमारी तो गुजर-बसर इसी जमीन पर है।
यह सोचकर किसान मालकिन के पास गये। कहा कि मुंशीजी को जमीन न दीजिए। हम उससे बढ़ती कीमत पर लेने को तैयार हैं। मालकिन राजी हो गईं।

तब किसानों ने कोशिश की कि मिलकर गांव-पंचायत की तरफ से वह सब जमीन पर जा से ताकि वह सभी की बनी रहे। दो बार इस पर विचार करने को पंचायत जुड़ी पर फैसला न हुआ। असल में शैतान की सब करतूत थी। उसने उनके बीच फूट डाल दी थी। बस, तब वे मिलकर किसी एक मत पर आ ही नहीं से। तय हुआ कि अलग-अलग करके ही वह जमीन ले ली जाय। हर कोई अपने बित्ते के हिसाब से ले। मालकिन पहले की तरह इस बात पर भी राजी हो गई।

इतने में दीना को मालूम हुआ कि एक पड़ोसी इकट्ठी पचास एकड़ जमीन ले रहा है और जमींदारिन राजी हो गई हैं कि आधा रुपया अभी नकद ले लें, बाकी साल भर बाद चुकता हो जायगा।

दीना ने अपनी स्त्री से कहा कि और जने जमीन खरीद रहे है। हमें भी बीस या इतने एकड़ जमीन ले लेनी चाहिए। जीना वैसे भार हो रहा है और वह कारिदा जुर्माने-पर-जुर्माने करके हमें बरबाद ही कर देगा।

उन दोनों ने मिलकर विचार किया कि किस तरकीब से जमीन खरीदी जाय। सौ कलदार तो उनके पास बचे हुए रखे थे। एक उन्होंने उमर पर आया अपना बछड़ा बेच डाला। कुछ माल बंधक रक्खा। अपने बड़े बेटे को मजदूरी पर चढ़ाकर उसकी नौकरी के मद्दे कुछ रुपया पेशगी ले लिया। बाकी बचा अपनी स्त्री के भाई से उधार ले लिया। इस तरह कोई आधी रकम उन्होंने इकट्ठी कर ली।

इतना करे दीना ने एक चालीस एकड़ जमीन का टुकड़ा पसंद किया, जिसमें कुछ हिस्से में दरख्त भी खड़े थे। मालकिन के पास उसका सौदा करने पहुंचा। सौदा पट गया ओर वहीं-के-वहीं नकद उसने साई दे दी। फिर कस्बे में जाकर लिखा-पढ़ी पक्की कर ली।

अब दीना के पास अपनी निजी जमीन थी। उसने बीज खरीदा और इसी अपनी जमीन पर बोया, इस तरह वह अब खुद जमींदार हो गया।

इस तरह दीना काफी खुशहाल था। उसके संन्तोष में कोई कमी न रहती। अगर बस पड़ोसियों की तरफ से उसे पूरा चैन मिल सकता। कभी-कभी उसे खेतों पर पड़ोसियों के मवेशी आ चरते। दीना ने बहुत विनय के साथ समझाया, लेकिन कुछ फर्क नहीं हुआ। उसके बाद और-तो-और, घोसी छोकरे गांव की गायों को दिन-दहाड़े उसकी जमीन में छोड़ देने लगे। रात को बैल खेतों का नुकसान करते। दीना ने उनको बार-बार निकलवाया और बार-बार उसने उनके मालिकों को माफ किया। एक अर्से तक वह धीरज रक्खे रहा और किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। लेकिन कब तक? आखिर उसका धीरज टूट गया और उसने अदालत में दरख्वास्त दी। मन में जानता तो था कि मुसीबत की वजह असली यह है कि और लोगों के पास जमीन की कमी है, जान-बूझकर दीना की सताने की मंशाा किसी की नहीं है। लेकिन उसने सोचा कि इस तरह मैं नरमी दिखाता जाऊंगा, तो वे लोग शह पाते जायंगे और मेरे पास जितना है सब बरबाद कर देंगे। नहीं उनको एक सबक सिखाना चाहिए।

सो उसने ठान ली। एक सबक दिया, दूसरा। नतीजा यह कि दो-तीन किसानों पर अदालत से जुर्माना हो गया। इस पर तो पास-पड़ोस के लोग दीना से कीना रखने लगे। अब कभी-कभी जान-बूझकर भी तंग करने के लिए अपने मवेशी उसके खेतों में छोड़ देते। एक आदमी गया और उसे जरुरत अगर घर में ईंधन की थी, तो उसने रात में जाकर सात पूरे शीशम के दरख्त काट गिराये। दीना ने सवेरे घूमते हुए देखा कि पेड़ कटे हुए पड़े है। वे धरती से सटे हैं और उनकी जगह खड़े ठूंठ मानो दीना को चिढ़ा रहे हैं। देखकर उसको तैश आ गया।

उसने सोचा कि अगर दुष्ट ने एक यहां का तो दूसरा दूर का पेड़ काटा होता तो भी गनीमत थी। लेकिन कम्बख्त ने आसपास के सब पेड़ काटकर बगिया को वीरान करे दिया। पता लगे तो खबर लिये बिना न छोडूं। उसने जानने के लिए सिर खुजलाया कि यह करतूत किसकी हो सकती है। आखिर तय किया कि हो-न-हो, यह धुन्नू होगा। और कोई ऐसा नहीं कर सकता। यह सोच धुन्नू की तरफ गया गया कि शायद कुछ सबूत मिल जाय, लेकिन वहां कुछ चोरी का सबूत मिला नहीं और आपस में कहा-सुनी और तेजा-तेजी के सिवा कुछ नतीजा न निकला। तो भी उसे मने में पक्का विश्वास हो गया कि धुन्नू ने यह किया है और जाकर रपट लिखा दी। धुन्नू की पेशी हुई, मामला चला। एक अदालत से दूसरी अदालत हुई। आखिर में धुन्नू बरी हो गया, क्योंकि कोई सबूत और गवाह ही नहीं थे। दीना इस बात पर और भी झल्ला उठा और अपना गुस्सा मजिस्ट्रेट पर उतारने लगा।

इस तरह दीना का अपने पड़ोसियों और अफसरों से मनमुटाव होने लगा, यहांतक कि उसे घर में भी आग लगाने की बातें सुनी जाने लगीं। हालांकि दीना के पास अब जमीन ज्यादा थी और जमींदारों में उसी गिनती थी, पर गांव में और पेचों में पहला-सा उसका मान न रह गया था।

इसी बीच अफवाह उड़ी कि कुछ लोग गांव छोड़-छोड़कर कहीं जो रहे हैं।

दीना ने सोचा कि मुझे तो अपनी जमीन छोड़ने की जरुरत है ही नहीं। लेकिन और कुछ लोग अगर गांव छोड़ेंगे तो चलो, गांव में भीड़ ही कम होगी। मैं उनकी जमीन खुद ले लूंगा। तब ज्यादा ठीक रहेगा। अब तो जमीन की कुछ तंगी मालूम होती है।

एक दिन दीना घर के ओसारे में बैठा हुआ था कि एक परदेसी-सा किसान उधर से गुजरता हुआ उसके घर उतरा। वह वहां रात-भर ठहरा और खाना भी वहीं खाया। दीना ने उससे बातचीत की कि भाई, कहां से आ रहे हो? उसने कहा दरिया सतलज के पास से आ रहा हूं। वहां बहुत काम है। फिर एक में से दूसरी बात निकली और आदमी ने बताया कि उस तरफ नई बस्ती बस रही है। उसे अपने गांव के कई और लोग वहां पहुंचे हैं। वे सोसायटी में शामिल हो गये हैं और हरेक को बीस एकड़ जमीन मुफ्त मिली है। जमीन ऐसी उम्दा है कि उस पर गेहूं की पहली फसल जो हुई तो आदमी से ऊंची उसी बालें गईं और इतनी घनी कि दरांत के एक काट में एक पूला बन जाय। एक आदमी के पास खाने को दाने न थे। खाली हाथ वहां पहुंचा। अब उसके पास दो गायें, छ: बैल और भरा खलिहान अलग।

दीना के मन में भी अभिलाषा पैदा हुई। उसने सोचा कि मैं यहां तंग संकरी-सी जगह में पड़ा क्या कर रहा हूं, जबकि दूसरी जगह मौका खुला पड़ा है। यहां की जमीन, घर-बार बेच-बाचकर नकदी बना वहीं क्यों न पहुंचूं और नये सिरे से शुरु करके देखूं? यहां लोगों की गिचपित हुई जाती है। उससे दिक्कत होती है और तरक्की रुकती है, लेकिन पहले खुद जाकर मालूम कर आना चाहिए कि क्या बात है, सो बरसात के बाद तैयारी करे वह चल दिया। पहले रेल में गया। फिर सैकड़ों मील बैलगाड़ी पर और पैदल सफर करता हुआ सतलज के पारवाली जगह पर पहुंचा। वहां देखा कि जो उस आदमी ने कहा था, सब सच है। सबके पास खूब जमीन है। हरेक को सरकार की तरफ से बीस-बीस एकड़ जमीन मिली हुई है, या जो चाहे खरीद सकता है। और खूबी यह कि कौड़ियों के मोल जितनी चाहे, जमीन और भी ले सकता है।

सब जरुरी बातें मालूम करे दीना जाड़ों से पहले-पहल घर लौट आया। आकर देश-छोड़ने की बात सोचने लगा। नफे के साथ उसने सब जमीन बेच डाली। घर-मकान, मवेशी-डंगर सबकी नकदी बना ली और पंचायत से इस्तीफा दे दिया और सारे कुनबे को साथ ले सतलज-पार के लिए रवाना हो गया।

दीना परिवार के साथ उस जगह पहुंच गया। जाते ही एक बड़े गांव की पंचायत में शामिल होने की अर्जी दी। पंचों की उसने खूब खातिर की और दावतें दीं। जमीन का पट्टा उसे सहज मिल गया। मिली-जुली जमीन में से उसे और उसके बाल-बच्चों के इस्तेमाल के लिए पांच हिस्से यानी सौ एकड़ जमीन उसको दे दी गई। वह सब इकट्ठी नहीं थी, कई जगह टुकड़े थे। अलावा इसके पंचायती चरागाह भी उसके लिए खुला कर दिया गया। दीना ने जरुरी इमारतें अपने लिए खड़ी कीं और मवेशी खरीद लिये। शामलात जमीन में से ही अब उसको इतना मिल गया था कि पहले से तिगुनी, और जमीन उपजाऊ थी। वह पहले से कई गुना खुशहाल हो गया। उस पास चराई के लिए खुला मैदान-का-मैदान पड़ा था और जितने चाहे वह ढोर रख सकता था।

पहले तो वहां जमने और मकान-वकान बनवाने का उसे रस रहा। वह अपने से खुश था और उसे गर्व मालूम होता था। पर जब वह इस खुशहाली का आदी हो गया तो उसे लगने लगा कि यहां भी जमीन काफी नहीं है; ओर होती तो अच्छा था। पहले साल उसने गेहूं बुवाया और जमीन ने अच्छी फसल दी। वह फिर गेहूं ही बोते जाना चाहता था, पर उसे लिए और पड़ती जमीन काफी न थी। जो एक बार फसल दे चुकती थी, वह उसे तरफ एक साथ दोबारा गेहूं नहीं देती थी। एक या दो साल उससे गेहूं ले सकते थे, फिर जरुरी होता था कि धरती को आराम दिया जाय। बहुत लोग ऐसी जमीन चाहनेवाले थे, लेकिन सबके लिए आती कहां से? इससे बदाबदी और खींचातानी होती थी। जो संपन्न थे, वे गेहूं उगाने के लिए जमीन चाहते थे। जो गरीब थे, वे अपनी जमीन से जैसे-तैसे पैसा वसूल करना चाहते थे, ताकि टैक्स वगैरा अदा कर सकें। दीना और गेहूं बोना चाहता था। इसलिए एक साल के लिए किराये पर उसने और जमीन ले ली। खूब गेहूं बोया और फसल भी खूब हुई। लेकिन जमीन गांव से दूर पड़ती थी और गल्ला मीलों दूर से गाड़ी में भर-भरकर लाना होता था। कुछ दिनों बाद दीना ने देखा कि कुछ बड़े-बड़े लोग अलग फाम्र डाल कर रहते हैं और वह खूब पैसा कमा रहे हैं। उसने सोचा कि आगर मैं इकट्ठी कायमी जमीन ले लूं और वहीं घर बसाकर रहूं तो बात ही दूसरी हो जाय।

इस तरह इकट्ठी और कायमी जमीन खरीदने का सवाल बार-बार उसके मन में उठने लगा।

तीन साल इस तरह निकल गये। दीना जमीन किराये पर लेता और गेहूं बोता। मौसम ठीक गये, काश्त अच्छी हुई और उस पास माल जमा होने लगा। वह इसी तरह संतोष से बढ़ता जा सकता था, लेकिन हर साल और लोगों से जमीन किराये पर लेने और उसके लिए कोशिश और सिरदर्दी करने के काम से वह थक गया था। जहां जमीन अच्छी होती, वहीं लेने वाले दौड़ पड़ते। इससे बहुत चौकस-चौकत्रा और होशियार न रहा जाता तो जमीन मिलना असंभव था। यह एक परेशानी की बात थी। तिसपर तीसरे साल ऐसा हुआ कि दीना ने एक महाजन के साझे में कुछ काश्तकारों से एक जमीन किराये में ली। जमीन गोड़ कर तैयार हो चुकी थी कि कुछ आपस में तनातनी हो गई और किसान लोग झगड़ा लेकर अदालत पहुंचे। अदालते से फिर मामला बिगड़ गया और की-कराई मेहनत बेकार गई।
दीना ने सोचा कि अगर कहीं जमीन मेरी कायमी मिल्कियत की होती तो मैं आजाद होता और क्यों यह पचड़ा बनता और बखेड़ बढ़ता?

उस दिन से वह जमीन के लिए निगाह रखने लगा। आखिर एक किसान मिला, जिसने एक हजार जमीन खरीदी थी, लेकिन पीछे उसकी हालत संभल न सकी। अब मुसीबत में पड़कर वह उसे सस्ती देने को तैयार था। दीना ने बात उससे चलाई और सौदा करना शुरु किया। आदमी मुसीबत में था, इससे दीना भाव-दर में कमी करने लगा। आखिर कीमत एक हजार रुपये तय पाई। कुछ नगद दे दिया जाय, बाकी फिर। सौदा पक्का हो गया था कि एक सौदागर अपने घोड़े के दाने-पानी के लिए उसे घर के आगे ठहरा। उससे दीना की बातचीत जो हुई तो सौदागर ने कहा कि मैं नर्मदा नदी के उस पार से चला आ रहा हूं। वहां १५०० एकड़ उम्दा जमीन कुल पांच सौ रुपये में मैंने खरीदी थी। सुनकर दीना ने उससे और सवाल पूछे। सौदागर ने कहा:

‘‘बात यह है कि अफसर-चौधरी से मेल-मुलाकात करने का हुनर चाहिए। सौ से ज्यादा रुपये तो मैंने रेशमी कपड़े और गलीचे देने में खर्च किये होंगे। फिर शराब, फल-मेवों की डालियां, चाय-सेट वगैरा के उपहार अलग। नतीजा यह कि फी एकड़ मुझे जमीन आनों के भाव पड़ गई।’’कहकर सौदागर ने अपने दस्तावेज सब दीना के सामने कर दिये।

फिर कहा, ‘‘जमीन ऐन नदी के किनारे है और सारे-का-सारा किता इकट्ठा है। उपजाऊ इतना कि क्या पूछो।’’
दीना ने इस पर उत्सुकतापूर्वक सौदागर से सवाल-पर-सवाल किये। उसने बताया:

‘‘वहां इतनी जमीन है, इतनी कि तुम महीनों चलो तो पूरी न हो। वहां के लोग ऐसी सीधे हैं, जैसे भेड़ और जमीन समझो, मुफ्त के भाव ले सकते हो।’’

दीना ने सोचा, यह ठीक रहेगा। भला मैं अब हजार एकड़ के लिए हजार रुपया क्यों फंसाऊं?

अगर वहां जाकर इतना रुपया जमीन में लगाऊं, तो यहां से कई गुनी ज्यादा जमीन मुझे पड़ जायगी।
दीना ने पूछताछ की कि उस जगह कैसे जाया जाय? सौदागर ने सब बतला दिया। वह चला गया तो दीना ने भी अपनी तैयारी शुरु की। बीवी को कहा कि घर देखना-भालना और खुद एक आदमी साथ ले, यात्रा को निकल पड़ा। रास्ते में एक शहर में ठहरकर, वहां से चाय के डब्बे, शराब और इसी तरह और उपहार की चीजें, जो सौदागर ने बताई थीं, ले लीं। फिर दोनों बढ़ते गये, बढ़ते गये। चलते-चलते आखिर सातवें रोज वहां पहुंचे, जहां से कोल लोगों की बस्ती शुरु होती थी। उसने देखा कि सौदागर ने जो बात बताई थी, वह सही थी। दरिया के पास जमीन-ही-जमीन थी। सब खाली। ये लोग उससे काम न लेते थे। कपड़े या सिरकी के तम्बू में रहते, शिकार करते, मवेशी पालते और ऐसे ही मौज करते थे। ने रोटी बनाना जानते थे, न अनाज उगाना सीखा था। दूध का छाछ-मठा बनाते, पनीर बनाते और उसी एक तरह की शराब भी तैयार कर लेते थे। ये सब काम औरतें करती। मर्द खाने-पीने और फुर्सत के वक्त चैन की बंसी बजाने में रहते। वे लोग मजबूत और स्वस्थ थे और काम-धाम के नाम बिना कुछ किये मगन रहते थे। अपने से बाहर उन्हें कुछ पता न था। पढ़ना-लिखना जानते नहीं थे और हिन्दी तक नहीं जानते थें पर थे भले-सीधे स्वभाव के। दीना को देखते ही वे अपने तम्बुओं से निकल आये और उसके चारों तरफ जमघट लगाकर खड़े हो गये। उनमें से एक दुभाषिये की मार्फत दीना ने बताया कि मैं जमीन की खातिर आया हूं। वे लोग बड़े खुश मालूम हुए। बड़ी आवभगत के साथ वे उसे अपने अच्छे-स-अच्छे डेरे में ले गये। वहां कालीन पर बिछे गद्दे पर बिठाया ओर खुद नीचे चारों ओर घिसकर बैठ गये। उसे पीने को चाय दी और दारु भी। उसकी मेहमानी में बढ़-बढ़कर दावत हुई। दीना ने भी गाड़ी में से अपने पास से भेंट की चीजें निकाली और सबको थोड़ी-थोड़ी चाय बांटी। कोल लोग बड़े खुश थे। उन्होंने आपस में इए अजनबी की बाबत खूब चर्चा की। फिर दुभाषिये से कहा कि मेहमान को सब समझा दो।

दुभाषिये ने कहा कि ये लोग कहना चाहते हैं कि हम आपके आने से खुश हैं। हमारे यहां का कायदा है कि मेहमान की खातिर जो हमसे बन सके, करें। आपकी कृपा के हम कृतज्ञ हैं। बतलाइए कि हमारे पास कौन-सी चीज है, जो आपको सबसे पसंद हैं, ताकि हम उसीसे आपकी खातिर कर सकें।

दीना ने जवाब दिया कि जिस चीज को देखकर मैं बहुत खुश हूं, वह आपकी जमीन है। हमारे यहां जमीन की कमी है और वह उपजाऊ भी इतनी नहीं होती, लेकिन यहां उसका कोई पार नहीं है और वह जमीन उपजाऊ भी खूब है। मैंने तो अपनी आंखों से यहां-जैसी धरती दूसरी देखी नहीं।

दुभाषिये ने दीना की बात अपने लोगों को समझा दी। कुछ देर वे आपस में सलाह करते रहे। दीना समझ नहीं सकता कि वे क्या कह रहे हैं। लेकिन उसने देखा कि वे बहुत खुश मालूम होते है, बड़े हंस रहे हैं और जोर-जोर से बोल रहे हैं। अनंतर वे चुप हुए और दीना की तरफ देखने लगे।

फिर आपस में बात करने लगे। मालूम पड़ा कि जैसे उनमें कुछ दुविधा है। दीना ने पूछा कि उन लोगों में अब किस बात की अटक है। दुभाषिये ने बताया कि उनमें कुछ की राय है कि सरदार से जमीन देने के बारे में और पूछ लेना चाहिए, गैर-हाजिरी में कुछ कर डालना ठीक नहीं है। दूसरों का खयाल है कि इस बात में सरदार के लौटने की राह देखने की जरुरत नहीं है, जरा-सी तो बात है।

यह विवाद चल रहा था कि एक आदमी बड़ी-सी बालदार टोपी पहने वहां आ पहुंचा। सब चुप होकर उसके संम्मान में खड़े हो गये। दुभाषिये ने कहा कि यही हमारे सरदार है।

दीना ने फौरन अपने सामान में से एक बढ़िया लबाद निकाला और चाय का एक बड़ा डिब्बा, और अन्य चीजें सरदार को भेंट कीं। सरदार ने भेंट स्वीकार की और अपने आसन पर आ बैठा। बैठते ही कोल लोगों ने उससे कुछ कहना शुरु किया। सरदार कुछ देर सुनता रहा, फिर उसने उन्हें चुप रहने का इशारा किया। उसे बाद दीना की तरफ मुखातिब होकर हिन्दुस्तानी में कहा:

‘‘इन भाइयों ने जो कहा, ठीक है। जितनी जमीन चाहे चुन लो। हमारे यहां उसका घाटा नहीं है।’’

दीना ने सोचा कि मैं मनचाहे जितनी जमीन कैसे ले सकता हूं। पक्का करने के लिए दस्तावेज वगैरा भी तो चाहिए, नहीं तो जैसे आज इन्होंने कह दिया कि यह तुम्हारी है, पीछे वैसे ही उसे ले भी सकते हैं।

प्रकट में उसने कहा, ‘‘आपकी दया के लिए मैं कृतज्ञ हूं। आपके पास बहुत धरती है और मुझे थोड़ी-सी चाहिए। लेकिन मुझे भरोसा होना चाहिए कि मेरा अपना छोटा टुकड़ा कौन-सा है और यह कि वह मेरा ही है। क्या ऐसा नहीं हो सता कि जमीन को नाप लिया जाय और उतना टुकड़ा फिर मेरे हवाले कर दिया जाय? मरना-जीना ईश्वर के हाथ है और संसार में यही चक्कर चलता है। आप दयावान लोग तो मुझे यह देते हैं, पर हो सता है कि पीछे आपकी औलाद उसीको वापस ले लेना चाहे तब?’’

सरदार ने कहा, ‘‘तुम्हारी बात ठीक है। जमीन तुम्हारे हवाले ही कर दी जायगी।’’

दीना ने कहा, ‘‘सुना है, यहां एक सौदागर आया था। उसको भी आपने जमीन दी थी और उस बाबत कागज पक्का कर दिया था। वैसे ही मैं चाहता हूं कि कागज पक्का हो जाय।’’

सरदार समझ गया।

बोला, ‘‘हां, जरुर। यह तो आसानी से हो सकता है। हमारे यहां एक मुंशी है, कस्बे में चलकर लिखा-पढ़ी पक्की कर ली जायगी और रजिस्ट्री हो जायगी।’’

दीना ने पूछा, ‘‘कीमत की दर क्या होगी?’’

‘‘हमारी दर तो एक ही है। एक दिन के एक हजार रुपये।’’

दीना समझा नहीं। बोला, ‘‘दिन! दिन का हिसाब यह कैसा है? यह बताइये कितने एकड़?’’

सरदार ने कहा, ‘‘यह सब गिनना-गिनाना हमसे नही होता। हम तो दिन कि हिसाब से बेचते हैं, जितनी जमीन एक दिन में पैदल चलकर तुम नाप डालो, वही तुम्हारी। और कीमत है ही दिनभर की एक हजार।’’

दीना अचरज में पड़ गयां कहा, ‘‘एक दिन में तो बहुत-सी जमीन को घेरा जा सकता है।’’

सरदार हंसा। बोला, ‘‘हां, क्यों नही। बस, वह सब तुम्हारी। लेनि एक शर्त है। अगर तुम उसी दिन, उसी जगह न आ गये, जहां से चले थे, तो कीमत जब्त समझी जायगी।’’

‘‘लेकिन मुझे पता कैसे चलेगा कि मैं इस जगह से चला था।’’

‘‘क्यों, हम सब साथ चलेंगे और जहां तुम ठहरने को कहोगे, ठहरे रहेंगे। उस जगह से शुरु करना और वहीं लौट आना। साथ फावड़ा ले लेना। जहां जरुरी सूमझा, निशान लगा दिया। हर मोड़ पर एक गड्ढा किया और उस पर घास को जरा ऊंचा चिन दिया। पीछे फिर हमलोग चलेंगे और हल से इस निशान से उस निशान तक हदबन्दी खींच देंगे। अब दिन भर में जितना चाहो, बडे-से-बड़े चक्कर तुम लगा सकते हो। पर सूरज छिपने से पहले जहां से चले थे, वहां आ पहुंचना। जितनी जमीन तुम इस तरह नाप लोगे, वह तुम्हारी हो जायगी।’’

दीना खुश हुआ। तय हुआ कि अगले सवेरे ही चलना शुरु कर दिया जायगा। फिर कुछ गपशप हुई, खाना-पीना हुआ। ऐसे ही करते-कराते रात हो गई। दीना के लिए उन्होंने खूब आराम का परों का बिस्तर लगा दिया और वे लोग रातभर के लिए विदा हो गये। कह गये कि पौ फटने से पहले ही वे आ जायंगे, ताकि सूरज निकलने से पहले-पहले मुकाम पर पहुंच जाया जाय।

दीना अपने परों के बिस्तरे पर लेटा तो रहा, पर उसे नींद ने आई। रह-रहकर वह जमीन के बारे में सोचने लगता था:

‘‘चलकर मैं कितनी जमीन नाप डालूं कुछ ठिकाना है! एक दिन में पैंतीस मील तो आसानी से कर ही लूंगा। दिन आजकल लंबे होते हैं और पैंतीस मील!—कितनी जमीन उसमें आ जायगी! उसमें से घटिया वाली तो बेच दूंगा या किराये पर उठा दूंगा, लेकिन जो चुनी हुई बढ़िया होगी वहां अपना फाम्र बनाऊंगा। दो दर्जन तो बैल फिलहाल काफी होंगे। दो आदमी भी रखने होंगे। कोई डेढ़ सौ एकड़ में तो काश्त करुंगा। बाकी चराई के लिए।’’

दीना रातभर पड़ा जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाता रहा। देर-रात कहीं थोड़ी नींद आई। आंख झपी होगी किसी के बाहर से खिलखिलाकर हंसने की आवाज उसके कानों में आई। अचरज हुआ कि यह कौन हो सकता है? उठकर बाहर आकर देखा कि कोल लोगों का वह सरदार ही बाहर बैठा जोर-जोर से हंस रहा है। हंसी के मारे अपना पेट पकड़ रक्खा है। पास जाकर दीना ने पूछना चाहा, ‘‘आप ऐसे हंस क्यों रहे हैं?’’ लेकिन अभी पूछ पाया नहीं था कि देखता क्या है कि वहां सरदार तो है नहीं, बल्कि वह सौदागर बैठा है, जो अभी कुछ दिन पहले उसे अपने देश में मिला था ओर जिसने इस जमीन की बात बताई थी। तब दीना उससे पूछने को हुआ कि यहां तुम कैसे हो और कब आये? लेकिन देखा तो वह सौदागर भी नहीं, बल्कि वही पुराना किसान है जिसने मुद्दत हुई तब सतलज-पार की जमीन का पता दिया था। लेकिन फिर जो देखता है तो वह किसान भी नहीं है, बल्कि खुद शैतान है, जिसके खुर हैं और सींग है। वही वहां बैठा ठट्टा मारकर हंस रहा है। सामने उसके एक आदमी पड़ा हुआ है—नंगे पैर, बदन पर बस एक कुर्त्ता-धोती। जमीन पर वह आदमी औंधे मुंह बेहाल पड़ा है। दीना ने सपने में ही ध्यान से देखा कि ऐसा पड़ा हुआ आदमी कौन है और कैसा? देखता क्या है कि वह आदमी दूसरा कोई नहीं, खुद दीना ही है और उसकी जान निकल चुकी है। यह देखकर मारे डर के वह घबरा गया। इतने में उसी आंख खुल गई।

उठकर सोचा कि सपने में आदमी जाने क्या-क्या वाहियात बातें देख जाता है। अंह्! यह सोचकर मुंह मोउ़ दरवाजे के बाहर झांककर जो देखा तो सवेरा होनेवाला था। सोचा, समय हो गया। उन्हें अब जगा देना चाहिए। चलने में देर ठीक नहीं।

वह खड़ा हो गया और गाड़ी में सोते हुए अपने आदमी को जगाया। कहा कि गाड़ी तैयार करो। खुद कोल लोगों को बुलाने चल दिया।

जाकर कहा, ‘‘सवेरा हो गया है। जमीन नापने चल पड़ना चाहिए।’’ कोल लोग सब उठे और इकट्ठे हुए। सरदार भी आ गये। चलने से पहले उन्होंने चाय की तैयारी की और दीना को चाय के लिए पूछा। लेकिन चाय में देर होने का खयाल कर उसने कहा, ‘‘अगर जाना है तो हमको चल देना चाहिए। वक्त बहुत हो गया।’’

कोल तैयार हुए और सब चल पड़े। कुछ घोड़े पर, कुछ गाड़ी में। दीना नौकर के साथ अपनी छोटी बहली में सवार था। फावड़ा उसने साथ रख लिया था। खुले मैदान में जब पहुंचे, तड़का फूट ही रहा था। पास एक ऊंची टेकड़ी थी, पार खुला बिछा मैदान। टेकड़ी पर पहुंचकर गाड़ी-घोड़ों से सब उतर आये और एक जगह जमा हुए। सरदार ने फिर आगे जाने कितनी दूर तक फैले मैदान की तरफ हाथ उठाकर दीना से कहा कि देखते हो, जहांतक यह सब, आंख जाती है वहांतक, हमलोगों की जमीन है। उसमें जितनी तुम चाहों, ले लो।

दीना की आंखें चमक उठीं। धरती एकदम अछूती पड़ी थी। हथेली की तरह हमवार और मुलायम। काली ऐसी कि बिनौला। और जहां कहीं जरा निचान था, वहां छाती-छाती जितनी तरह-तरह की हरियाली छाई थी।
सरदार ने अपने सिर की रोएंदार टोपी उतारी और धरती पर रख दी। कहा ‘‘यह निशान रहा। यहां से चलो और यहां आ जाओ। जितनी जमीन चल लोगे, वहीं तुम्हारी।’’

दीना ने भी रुपये निकाले और टोपी पर निगकर रख दिये। फिर उसने पहना हुआ अपना कोट उतार डाला और धोती को कस लिया। अंगोछे में रोटी रक्खी, आस्तीनों चढ़ाई, पानी का बन्दोबस्त किया, आदमी से फावड़ा लिया, और चलने को तैयार खड़ा हो गया। कुछ क्षण सोचता रह गया कि किस तरफ को चलना बेहतर होगा। सभी तरफ का लालच था।

उसने तय किया कि आगे देखा जायगा। पहले तो सामने सूरज की तरफ ही चला चलूं। एक बार पूरब की ओर मुंह करके खड़ा हो गया, अंगड़ाई लेकर बदन की सुस्ती हटाई और धरती के किनारे सूरज के मुंह चमकाने का इंतजार करने लगा।

सोचने लगा कि मुझे वक्त नहीं खोना चाहिए और ठंड-ठंड में रास्ता अच्छा पार हो सकता है। सूरज की पहली किरण का उनकी ओर आना था कि दीना, कंधे पर फावड़ा संभाल, खुले मैदान में कदम बढ़ाकर चल दिया।
शुरु में वह न धीमे चला, न तेज। हजार-एक गज चलने पर वह ठहरा। वहां एक गड्ढा किया और घास ऊंची चिन दी कि आसानी से दीख सके। फिर आगे बढ़ा। उसे बदने में फुर्ती आ गई। उसने चाल तेज कर दी। कुछ देर बाद दूसरा गड्ढा खोदा।

अब पीछे मुड़कर देखा। सूरज की धूप में टेकड़ी साफ दीखती थी। उस पर आदमी खड़े थे और गाड़ी के पहियों के आरे तक चमकते दीखते थे। अंदाजन तीन मील तो वह आ गया होगा। धूप में ताप आता जाता था। कुर्ते पर से बास्कट उतारकर उसने कंधे पर डाल ली और फिर चल पड़ा। अब खासी गर्मी होने लगी। उसने सूरज की तरफ देखा। वक्त हो गया था कि कुछ खाने-पीने की भी सोची जाती।

‘‘एक पहर तो बीत गया। लेकिन दिन में चार पहर होते हैं। अंह्, अभी जल्दी है। लेकिन जूते उतार डालूं।’’ यह सोच उसने जूते उतारकर अपनी धोती में खोंस लिये और बढ़ चला। अब चलना आसान था।

सोचा, ‘‘अभी तीन-एक मील तो और भी चला चलूं। तब दूसरी दिशा लूंगा। कैसी उमदा जगह ह। इसे हाथ से जाने देना हिमाकत है; लेकिन क्या अजब बात है कि जितना आगे बढ़ो, उतनी जमीन एक-से-एक बढ़कर मिलती है।’’
कुछ देर वह सीधा बढ़ा चला। फिर पीछे मुड़कर देखा तो टेकड़ी मुश्किल से दीख पड़ती थी और उस पर के आदमी रेंगती चींटी-से मालूम होते थे और वहां धूप में जाने क्या कुछ चलता हुआ-सा दीख पड़ता था।
दीना ने सोचा, ‘‘ओह, मैं इधर काफी बढ़ आया हूं। अब लौटना चाहिए।’’ पसीना बेहद आ रहा था और प्यास भी लग आई थी।

यहां ठहरकर उसने गड्ढा किया, ऊपर घास को ढेर चिन दिया। उसके बाद पानी पीकर सीधा बाई। तरफ मुड़ गया। चलता चला गया, चलता चला गया। घास ऊंची थी और गरमी बढ़ रही थी। वह थकने लगा। उसने सूरज की तरफ देखा। सिर पर दोपहर हो आई थी।

सोचा, अब जरा आराम कर लेना चाहिए। वह बैठ गया। रोटी निकालकर खाई और कुछ पानी पिया। लेटा नहीं कि कहीं नींद न आ जाय। इस तरह कुछ देर बैठ, फिर आगे बढ़ चला।

पहले तो चलना आसान हुआ। खाने से उसमें दम आ गया था। लेकिन गरमी तीखी हो चली और आंखों में उसके ऊंघ-सी आने लगी। तो भी वह चलता ही चला गया। सोचा कि तकलीफ घड़ी-दो-घड़ी की है, आराम जिंदगी भर का हो जायगा।

इस तरह भी उसने काफी लम्बी राह नापी। वह बाईं तरफ मुड़ने वाला ही था कि आगे जमीन उपजाऊ दिखाई दी। उसने सोचा कि इस टुकड़े को छोड़ना तो मूर्खता होगी। यहां सनी की बाड़ी ऐसी उगेगी कि क्या कहना! यह सोच उसने उस टुकड़े को भी नाप डाला और पार आकर गड्ढे का निशान बना दिया। फिर दूसरी तरफ मुड़ा। जो टेकड़ी की तरफ देखा तो ताप के मारे हवा कांपती-सी मालूम हुई। उस कंपकंपी के धुंधकारे में से वह टेकड़ी की जगह मुश्किल से चीन्ह पड़ती थी।

दीना ने सोचा कि क्षेत्र की ये दो भुजाएं मैंने ज्यादा मैंने नाप डाली है। अब इधर कुछ कम ही रहने दूं। वह तेज कदमों से तीसरी तरफ बढ़ा। उसने सूरज को देखा। सूरज कोई दो-तिहाई। अपना चक्कर काट चुका था। मुकाम से अभी वह दस मील दूर था। उसने सोचा कि छोड़ा जाने भी दो। मेरी जमीन की एक बाजू छोटी रह जायगी तो छोटी सही। लेकिन अब सीधी लकीर में मुझे वापस चलना चाहिए। जो ऐसे कहीं दूर निकल गया। तो बाजी गई। अरे, इतनी ही जमीन क्या थोड़ी है!

यह सोच दीना ने वहां तीसरे गड्ढे का निशान डाल दिया और टेकड़ी की तरफ मुंह कर ठीक उसी सीध में चल दिया।
नाक की सीध बांधकर सवह टेकड़ी की तरफ चला। लेकिन अब चलते मुश्किल होती थी। धूम उसका सत ले चुकी थी। नंगे पैर जगह-जगह कट और छिल गये थे और टांगें जवाब दे रही थीं। जरा आराम करने का उसका जी हुआ, लेकिन यह कैसे हो सकता था? सूरज छिपने से पहले उसे वहां पहुंच जाना था। सूरज किसी की बाट देखता बैठा नहीं रहता! वह पल-पल नीचे ढल रहा था।

उसके मन में सोच होने लगा कि मुझसे बड़ी भूल हुई। मैंने इतने पैर पसारे क्यों? अगर कहीं वक्त तक न पहुंचा तो?
उसने फिर टेकड़ी की तरफ देखा, फिर सूरज की तरफ। मुकाम से अभी वह दूर था और सूरज धरती के पास झूक रहा था।

दीना जी-तोड चलने लगा। चलने में सांस फूलती और कठिनाई होती थी; लेकिन तेज-पर तेज कदम वह रखता गया। बढ़ा चला, लेकिन जगह अब भी दूर बनी थी। यह देख उसने भागना शुरु किया। कंधे से वास्कट फेंक दी, जूते दूर हटाए, टोपी अलग की,बस साथ में निशान लगाने के लिए वह हल्का फावड़ा रहने दिया।

रह-रहकर सोच होता कि मैं क्या करुं? मैंने बिसात से बाहर चीज हथियानी चाही।

उसमें बना काम बिगड़ा जा रहा है। अब सूरज छिपने से पहले मैं वहां कैसे पहुंचूंगा?

इस सोच और डर के कारण वह और हांफने लगा। वह पसीना-पसीना हो रहा था, धोती गीली होकर चिपकी जा रही थी और मुंह सूख गया था। लेकिन फिर भी वह भागता ही जाता था। छाती उसकी लुहार की धौंकनी की तरह चल उठी, दिल भीतर हथौड़े की चोट-सा धड़कने लगा। उधर टांगे बेबस हुई जा रही थीं। दीना को डर हुआ कि इस थकान के मारे कहीं गिरकर ढेर ही न हो जाय।

हाल यह था, पर रुक वह नहीं सका। इतना भागकर भी अगर मैं जब रूकूंगा तो वे सब लोग मुझ पर हंसेगे और बेवकूफ बनायंगे, इसलिए उसने दौड़ना न छोड़ा दौड़े ही गया। आगे कोल लोगों की आवाज सुन पड़ती थी। वे उसको जोर जोर से कहकर बुला रहे थे। इन आवाजों पर उसका दिल और सुलग उठा। अपनी आखिरी ताकत समेट वह दौड़ा।

सूरज धरती से लगा जा रहा था। तिरछी रोशनी के कारण वह खूब बड़ा और लहू-सा लाल दीख रहा था। वह अब डूबा, अब डूबा। सूरज बहुत नीचे पहुंच गया था। लेकिन दीना भी जगह के बिल्कुल किनारे आ लगा था। टेकड़ी पर हाथ हिला-हिलाकर बढ़ावा देते हुए कोल लोग उसे सामने दिखाई देते थे। अब तो जमीन पर रक्खी वह टोपी भी दीखने लगी, जिस पर उसकी रकम भी रक्खी थी। वहां बैठा सरदार भी दिखाई दिया- वह पेट पकड़े हंस रहा था।
दीना को सपने की याद हो आई।

उसने सोचा कि हाय, जमीन तो काफी नाप डाली है, लेकिन क्या ईश्वर मुझे उसको भोगने के लिए बचने देगा? मेरी जान तो गई दीखती है। मैं मुकाम तक अब नहीं पहुंच सकूंगा। दीना ने हसरत-भरी निगाह से सूरज की तरफ देखा सूरज धरती को छू चुका था। वह बची-खुची अपनी शक्ति से आगे बढ़ा । कमर झुकाकर भागा, जैसे कि टांगें साथ न देती हों। टेकड़ी पर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो आया था। उसने ऊपर देखा-सूरज छिप चुका था। उसके मुंह से एक चीख–सी निकल गई, "ओह, मेरी सारी मेहनत व्यर्थ गई!"-यह सोचकर वह थमने को हुआ, लेकिन उसे सुन पड़ा कि खड़े हैं और उन्हें सूरज अब भी दीख रहा होगा। सूरज छिपा नहीं है, अगर्चे मुझको नहीं दीखता। यह सोचकर उसने लंबी सांस खींची और टेकड़ी पर आंख मूंदकर दौड़ा। चोटी पर अभी धूप थी। पास पहुंचा और सामने टोपी देखी। बराबर सरदार बैठा वहीं पेट पकड़े हंस रहा था। दीना को फिर अपना सपना याद आया और उसके मुंह से चीख निकल पड़ी। टांगों ने जवाब दे दिया।

वह मुंह के बल आगे को गिरा और उसके हाथ टोपी तक जा पहुंचे।

"खूब ! खूब !" सरदार ने कहा, "देखो, उसने कितनी जमीन ले डाली !"

दीना का नौकर दौड़ा आया और उसने मालिक को उठाना चाहा। लेकिन देखता क्या है कि मालिक के मुंह से खून निकल रहा है।

दीना मर चुका था। कोल लोग दया से और व्यंग्य से हंसने लगे। नौकर ने फावड़ा लिया और दीना के लिए कब्र खोदी और उसमें लिटा दिया। सिर से पांव तक कुल छ: फुट जमीन उसे काफी हुई।

-लियो तोल्स्तोय

Tuesday, November 4, 2008

वीरों का हो कैसा वसन्त

आ रही हिमालय से पुकार

है उदधि गरजता बार बार

प्राची पश्चिम भू नभ अपार;

सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त

वीरों का हो कैसा वसन्त


फूली सरसों ने दिया रंग

मधु लेकर आ पहुंचा अनंग

वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;

है वीर देश में किन्तु कंत

वीरों का हो कैसा वसन्त


भर रही कोकिला इधर तान

मारू बाजे पर उधर गान

है रंग और रण का विधान;

मिलने को आए आदि अंत

वीरों का हो कैसा वसन्त


गलबाहें हों या कृपाण

चलचितवन हो या धनुषबाण

हो रसविलास या दलितत्राण;

अब यही समस्या है दुरंत

वीरों का हो कैसा वसन्त


कह दे अतीत अब मौन त्याग

लंके तुझमें क्यों लगी आग

ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;

बतला अपने अनुभव अनंत

वीरों का हो कैसा वसन्त


हल्दीघाटी के शिला खण्ड

ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड

राणा ताना का कर घमंड;

दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत

वीरों का हो कैसा वसन्त


भूषण अथवा कवि चंद नहीं

बिजली भर दे वह छन्द नहीं

है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;

फिर हमें बताए कौन हन्त

वीरों का हो कैसा वसन्त

-सुभद्राकुमारी चौहान

झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।


चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


कानपुर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।


वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़|


महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में,


चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।


निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।


अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।


रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।


बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।


यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।


हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,


जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।


लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।


ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।


अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।


पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।


घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,


दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।


तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
-सुभद्राकुमारी चौहान

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।।
- माखनलाल चतुर्वेदी

Monday, November 3, 2008

कदम्ब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।
-सुभद्राकुमारी चौहान

हम पंछी उन्मुक्त गगन के

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालों।
-शिवमंगल सिंह सुमन

जो बीत गई सो बात गई

जो बीत गई सो बात गई !!


जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गये फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मचाता है

जो बीत गई सो बात गई !!!


जीवन में वह् था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियां
मुर्झाईं कितनी वल्लरियां
जो मुर्झाईं फ़िर कहां खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है

जो बीत गई सो बात गई !!!


मृदु मिट्टी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आये हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वो मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है

जो बीत गई सो बात गई !!!
-हरिवंशराय बच्चन

अरुण यह मधुमय देश हमारा

अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा॥
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कंकुम सारा॥
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किये, समझ नीड़ निज प्यारा॥
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा॥
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा॥
-जयशंकर प्रसाद

सखि वे मुझसे कहकर जाते

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?


मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
-मैथिलीशरण गुप्त

वो तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर.
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर.

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रात मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका अट्टालिका, प्राकर.

चढ़ रही धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गयीं,
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर.

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्न्तार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सुना सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
`मैं तोड़ती पत्थर!'
-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Thursday, October 23, 2008

मधुशाला

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।

मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।

बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।

बड़े बड़े पिरवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।

सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।

भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।

हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।

बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।

सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।

तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।

अधरों पर हो कोई भी रस जिहवा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।

पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।

प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।

मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।

साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।

उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।

अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।

साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।

वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।

चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।

घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।

हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।

धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।

सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।

बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।

और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।

आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।

यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।

वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।

श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।

एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।

बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।

कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।

आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।

आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।

सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५।

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।

क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।

मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।

क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।

लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।

कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।

ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।

क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।

प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।

अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।

यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।

यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।

याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।

गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी
सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।

यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।

ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।

मेरे अधरों पर हो अंितम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।

मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।

और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालांे को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४।

नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।

ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंिडत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।

यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।

पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।

जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।

देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।

कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।

'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।

हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-िमलते मधुशाला।।९४।

प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।

मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६।

मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।

किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।

उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।

साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।

साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।

साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, पिरश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।

जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाय जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।

नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तिनक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।

मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।

क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।

देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।

एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।

बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।

एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।

कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।

बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।

छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।

यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।

कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।

कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।

दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हँू, घूम रही है मधुशाला।।११८।

मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंिबत करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।

किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंिबत-प्रतिबंिबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।

मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।

मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।

कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहँा गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उज्ञल्तऌार पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।

'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंिडत जी
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।

कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।

जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।

जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छूू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।

हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुिच थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।

यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।

विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।

बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।

पिरिशष्ट से

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌार प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।

पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।

-हरिवंश राय बच्चन